कठिन मेहनत से बनाया अपना मुकाम और बन गई खेलों की दुनिया की सरताज ये बेटियां

जमाने के साथ लड़कियों ने कदम से कदम मिलाना सीखा है। तभी तो अब हर क्षेत्र में महिलाओं का दबदबा साफ नजर आता है। फिर खेल की दुनिया में बेटियां कैसे पीछे रह सकती हैं। हर क्षेत्र की तरह इसमें भी महिलाओं का जलवा देखने को मिलता है। ऐसी ही कहानी कुछ महिला खिलाड़ियों को जिन्होंने खेल के दम पर पाया मुकाम। चलिए जानें ऐसी ही कुछ होनहार बेटियों की सफलता की दास्तां....


खेलों की दुनिया में अपना मुकाम बनाने वाली जिम्नास्ट स्वाति की कहानी ऐसी ही होनहार बेटियों में से एक है। जिन्होंने काशी की व्यायामशाला से वेटलिफ्टिंग तक का सफर तय किया। स्वाति काशी की व्यायामशाला में जिम्नास्टिक की प्रैक्टिस करती थी, पर नेशनल खेलने को कभी नहीं मिला। इस बीच महसूस किया कि वेट लिफ्टिंग पसंद है। खुद की पसंद को तवज्जो दी और स्वाति सिंह ने शुरू कर दी वेट लिफ्टिंग। इसके बाद फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 2006 से 2008 तक ऑल इंडिया यूनिवर्सिटी चैंपियन रहीं। जूनियर वर्ल्ड चैम्पियनशिप साउथ अफ्रीका 2004 में सिल्वर मेडल जीता।

कॉमन वेल्थ गेम्स 2010 में हिस्सा लिया। कोशिशें जारी रहीं और 2014 के कॉमन वेल्थ गेम्स में ब्रॉन्ज मेडल जीता। उसी वर्ष कजाकिस्तान में ओलंपिक क्वालिफाई इवेंट में हिस्सा लिया। इसके बाद पारिवारिक कारणों से ब्रेक ले लिया। फिर लाइफ में ऐसा मोड़ आया कि तय कर लिया कि वापस वेट लिफ्टिंग में खुद को साबित करना है।

वापसी की और खुद को साबित भी किया


बीते दिनों पारिवारिक जीवन में कुछ परेशानी के बाद एक बार फिर स्वाति खेल की ओर लौटीं। लौटते ही इंडिया कैंप में जगह बनाई और थाईलैंड में ईजीयूटी कप 2019 में हिस्सा लेकर साबित कर दिया कि वाकई वह एक पावर वुमन हैं। वर्तमान में रेलवे में हेड टिकट एग्जामिनर स्वाति बताती हैं, बीते दिनों जो कुछ भी हुआ, उसके बाद मैंने केडी सिंह स्टेडियम जाना शुरू किया। लोगों का ध्यान मेरे खेल से ज्यादा मेरे व्यक्तिगत जीवन पर रहता, कई तरह के सवालों का सामना करना पड़ा। ऐसे में गेम पर फोकस करने के लिए मैं लखनऊ से निकल आई।

विभा सिंह की सफलता की कहानी भी कुछ अलग नहीं है। बनारस के ऊंचगांव की रहने वाली विभा के गांव में लड़कियों को ज्यादा पढ़ाने-लिखाने के बारे में नहीं सोचा जाता था। हांलाकि विभा ने खेल के मैदान को चुना। छिप-छिप कर स्कूल में खेलती लेकिन किसी को बताती नहीं थी। जब स्टेट लेवल पर मेडल मिला तो घर-गांव के लोगों की सोच बदली। परिवार के सदस्यों का खेल से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। ऐसे में खेल की दुनिया में अपना मुकाम बनाना आसान नहीं था। 
लेकिन मां ने बराबर प्रोत्साहित किया। इन्हीं कोशिशों के बीच पहुंच गईं साई हॉस्टल, फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। कई नेशनल खेले, ऑल इंडिया यूनिवर्सिटीज में अपना सर्वश्रेष्ठ दिया। इन्हीं उपलब्धियों का नतीजा था कि उन्हें यूपी एथलेटिक्स टीम का कोच बना दिया गया।
तैयार कर रहीं एथलीट की नई पौध
विभा बताती हैं, गांव की पगडंडियों से निकल कर बाहर आना काफी कठिन था। 20 किलोमीटर आना, 20 किमी. तक साइकिल चलाकर जाना मेरी दिनचर्या का हिस्सा था। नहीं जाती तो खेल नहीं पाती। अब तक 45 बच्चों को बतौर एथलीट तैयार कर चुकी हूं।



बचपन के शौक ने बना दिया क्रिकेट कैप्टन
प्रियंका शैली गोरखपुर की गलियों में अक्सर चचेरे भाइयों के साथ प्लास्टिक की बॉल से चौक्का-छक्का लगाती थीं। मम्मी-पापा ने भी कभी रोका नहीं। पढ़ाई के साथ-साथ हॉकी खेलने लगीं। 91-92 तक मंडल हॉकी में काफी धमाल मचाया। इस बीच सहेलियों से पता चला कि लखनऊ में क्रिकेट का ट्रायल हो रहा है। किस्मत आजमाने पहुंच गईं और चयन हो गया। तब से क्रिकेट से रिश्ता जुड़ा जो आज तक जारी है।

यूपी सीनियर गर्ल्स टीम की कोच, सीनियर वीमेन सलेक्शन कमेटी की चेयरपर्सन रहने के साथ वे यूपी सीनियर टीम की सात साल तक कैप्टन रह चुकी हैं। उन्हीं के नेतृत्व में इंडिया ए में वेस्ट इंडीज के खिलाफ भारतीय टीम ने जीत हासिल की थी।
तैयार कर रहीं नई पौध: प्रियंका कहती हैं, मैं लकी हूं कि मुझे मायके और ससुराल दोनों तरफ से भरपूर सहयोग मिला। शादी के बाद भी मेरा खेल जारी रहा। मेरी नानी तो मुझे खेलते देखकर सबसे ज्यादा खुश होती थीं। मेरा परिवार ही मेरी ताकत बना। यदि हर लड़की के साथ उसके घरवालों का सहयोग हो तो फिर कोई भी बेटी असफल हो ही नहीं सकती। प्रियंका फिलहाल क्रिकेट की नई पौध तैयार कर रही हैं।

निगाहें एशियाड 2021 पर
प्रयागराज में पैदा हुई, खेल का शौक लखनऊ ले आया। अब यहीं एसएसबी में नौकरी और खेल प्रतिस्पर्धाओं की तैयारी जारी है। इंटरनेशनल हैंडबॉल प्लेयर तेजस्वनी सिंह ने 2010 में पहला स्टेट कॉम्प्टीशन खेला था। इसके बाद से बेहतरीन प्रदर्शन का सिलसिला जारी है।

स्टेट खेलने के बाद ही लखनऊ साई हॉस्टल में चयन हो गया। प्रैक्टिस जारी रही। अब तक तीन जूनियर और पांच सीनियर नेशनल खेल चुकी हैं। तीन इंटरनेशनल मैच खेले, जिनमें से एक में गोल्ड हासिल किया।

इस खेल के हालात सुधरे
तेजस्वनी कहती हैं, मैं खुशनसीब हूं कि  पापा ही हमें लेकर ग्राउंड तक गए। घरवालों ने हमेशा हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। यही वजह है कि हम खेल सके और खेलते जा रहे हैं। सुबह और शाम लगातार प्रैक्टिस जारी है। तेजस्वनी के मुताबिक, जब सारे सीनियर्स खेलते थे, तो उनकी उपलब्धियां देखकर खेलने की प्रेरणा मिलती थी।